| 1. | एवं त्रिधा चतुर्द्धा च विभक्तः पंचधा पुनः।
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| 2. | वर्णशब्दोऽत्र व्यञ्जनविन्यसनविच्छित्तिः त्रिधा त्रिभिः प्रकारैरुक्तावर्णिता ।
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| 3. | एक एव पदार्थस्तु त्रिधा भवति वीक्षितः।
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| 4. | त्रिदेवस्य त्रिबाहोश्च, त्रिधा भूतस्य सर्वतः।।
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| 5. | यही तद्ब्रह्म है और ऊँ की मात्राओं में त्रिधा व्याकृत है।
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| 6. | यथा-वायुः पित्तं कपश्चेति त्रयोदोषाः समासतः प्रत्येक ते त्रिधा वृद्धिक्षयसाम्यविभेदतः ।।
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| 7. | यही तद्ब्रह्म है और ऊँ की मात्राओं में त्रिधा व्याकृत है।
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| 8. | इयमपरा वर्णविन्यासवक्रता त्रिधा त्रिभिः प्रकारैरुक्तेति “चऽ-शब्देनाभिसम्बन्धः । के पुनरस्यास्त्रयः प्रकारा इत्याह-वर्गान्तयोगिनः स्पर्शाः ।
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| 9. | कार्य विष्णु: क्रिया ब्रह्मा कारणं तु महेश्वर: प्रयोजनार्थं रूद्रेण मूर्तिरका त्रिधा कृता।
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| 10. | पुन: वही अष्टारचक्र त्रिधा विभक्त हो वह्नि शक्ति रूप से नवचक्रात्मक बन जाता है।
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